ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- III April  - 2022
Innovation The Research Concept
राम कथा में नारी दर्शन
Nari Darshan in Ram Katha
Paper Id :  15963   Submission Date :  15/04/2022   Acceptance Date :  20/04/2022   Publication Date :  25/04/2022
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श्वेता
असिस्टेंट प्रोफेसर
मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग
डीडीयू गोरखपुर विश्वविद्यालय
गोरखपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश वैदिक साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि आर्यों का सामाजिक जीवन बहुत ही सुव्यवस्थित था। परिवार में पुरुष की प्रधानता होते हुए भी वैदिक कालीन भारतीय समाज में नारियों को सम्मानित स्थान प्राप्त था। भारतीय इतिहास में विभिन्न कालों में नारी के विकास, उसकी उन्नति, अवनति, उसके संघर्ष, उसको प्राप्त अधिकार और उस पर लगने वाले प्रतिबंधों की एक लम्बी कहानी है, जो इतिहास के विभिन्न काल खण्डों में नारियों की भिन्न-भिन्न स्थितियों को दर्शाती है। रामायण काल तो वैदिक काल का मध्य भाग रहा है। इस काल में नारियों को दिये गये वचन को पूरा करना कर्तव्य का रुप माना जाता था। राम कथा भारत की आदि कथा है। बाल्मीकि रामायण में कौशल्या, कैकेयी, सीता, तारा आदि नारियों द्वारा वेद मंत्रों का उच्चारण, अग्निहोत्र, संध्योपासन का वर्णन आता है। प्रस्तुत शोध-पत्र के माध्यम से राम कथा में आये हुए नारी पात्रों के चरित्रों एवं उनके कर्तव्यों को दर्शाया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The study of Vedic literature shows that the social life of the Aryans was very well organized. Despite the predominance of men in the family, women had a respected place in the Vedic era Indian society. There is a long story of the development of women, her progress, her struggles, her rights and the restrictions imposed on her in different periods in Indian history, which shows the different conditions of women in different periods of history. The Ramayana period is the middle part of the Vedic period. In this period, fulfilling the promise given to women was considered as a form of duty. Ram Katha is the original story of India. In Valmiki Ramayana, there is a description of the recitation of Veda mantras, Agnihotra, Sandhyapasan by women like Kaushalya, Kaikeyi, Sita, Tara etc. Through the present research paper, the characters and their duties of the female characters who have come in the story of Ram have been depicted.
मुख्य शब्द वैदिक साहित्य, नारी, रामायण काल।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vedic Literature, Women, Ramayana Period.
प्रस्तावना
नारी समाज की आधारशिला है। माता और पत्नी के रूप में वह जिन कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती है उन्हीं कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों पर किसी समाज की उन्नति या अवनति आधारित होती है। नारी की सामाजिक स्थिति से सम्पूर्ण समाज प्रभावित होता है। ऐसा देखा गया है कि नारियों की उन्नति एवं अवनति का इतिहास सम्पूर्ण समाज की उन्नति व अवनति का इतिहास कहलाता है। भारतीय इतिहास में विभिन्न कालों में नारी के विकास, उसकी उन्नति, अवनति, उसके संघर्ष, उसको प्राप्त अधिकार और उस पर लगने वाले प्रतिबंधों की एक लम्बी कहानी है जो इतिहास के विभिन्न काल खण्डों में नारियों की भिन्न स्थितियों को दर्शाती है।
अध्ययन का उद्देश्य राम कथा में वर्णित नारी पात्रों की भूमिका, उनका चरित्र एवं उनके कार्यों का अन्वेषण किया गया है तथा यह बताने का प्रयास किया गया है कि नारी वर्तमान में किस प्रकार अपनी संस्कृति को सुरक्षित रख सकती है।
साहित्यावलोकन
वैदिक काल से ही नारी को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे। वैदिक काल का समय नारियों के लिए न केवल आजादी से भरा माना जाएगा, बल्कि इस काल में उनके अन्दर छिपे हुए सर्जनात्मक गुण भी वेदों में श्लोकों के माध्यम से नजर आये। रामायण के नारी पात्रों के चरित्रों को लेकर अलग-अलग कई रचनाएं हुई हैं। बाल्मीकि रामायण एवं रामचरित मानस में नारी पात्रों की चर्चा की गयी है। मैथिली शरण गुप्त की अमर कृति ‘‘साकेत’’ है। साकेत भी राम कथा पर आधारित है किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला हैं। इस कृति में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के विरह के मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित किया गया है। पंचवटी में भी सीता का मार्मिक वर्णन के साथ-साथ सूर्पणखा का भी चरित्र चित्रण किया गया है। प्रस्तुत शोध साहित्य के अध्ययन से कम समय में राम कथा में वर्णित सभी नारी पात्रों की सशक्त भूमिका की जानकारी प्राप्त हो जायेगी।
मुख्य पाठ

वैदिक साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि आर्यों का सामाजिक जीवन काफी सुव्यवस्थित था। परिवार में पुरूष की प्रधानता होते हुए भी वैदिक कालीन भारतीय समाज में नारियों को सम्मानित स्थान प्राप्त था।[1] नारी व पुरूष को समाज में बराबर का दर्जा प्राप्त था दोनों की सामाजिक प्रतिस्थिति समान थी। प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में नारियों की उपस्थिति अनिवार्य थी। नारी को पुरूष की सहधर्मिणी माना जाता था और यह समझा जाता था कि नारी के बिना पुरूष का कोई यज्ञ व धार्मिक कृत्य पूरा नहीं हो सकता था।[2] संतानोत्पादन, संतान का पालन पोषण, अतिथियों तथा मित्रों का सत्कार, लोक व्यवहार का पालन, घर के बड़े बुजुर्गों की सेवा, धार्मिक कृत्य नारियों के द्वारा किये जाते थे।[3] मनु ‘‘नारी को कोई अनिश्चित बोझ नहीं समझते, अपितु मनुष्य की सांसारिक एवं आध्यात्मिक अभिलाषाओं की पूर्ति का मुख्य साधक मानते थे।‘‘[4]
वैदिक काल का समय नारियों के लिए न केवल आजादी से भरा माना जाएगा, बल्कि इस काल में उनके अन्दर छिपे हुए सर्जनात्मक गुण भी वेदों में श्लोकों के माध्यम से नजर आये। वैदिक काल में कई सारी विदुषी नारियॉ हुई जिनमें घोषा, लोपामुद्रा, मैत्रेयी, गार्गी, विश्वरा आदि का नाम उल्लेखनीय है। इस काल में स्त्री को शक्ति के रूप में मान्यता प्रदान की गयी और अब तक वह पूजयनीय बन चुकी थी, कई जगह उसे पुरूष देवताओं से ज्यादा शक्तिशाली दिखाया गया। उदाहरण के लिए पुरूष रौद्र रूप शंकर को काली जी के पैरों के नीचे प्रदर्शित किया गया। इस काल में नारियों के प्रति लोगों में श्रद्धा और भक्ति में बहुत तेजी आई।
रामायण काल तो वैदिक काल का मध्य भाग रहा है, इसे लगभग ईसा से 7000 वर्ष पूर्व का माना जा सकता है अतः इसमें सारे वहीं गुण पाये जाते है जो कि वैदिक काल में पाये जाते थे। इस काल में नारियों को दिये गये वचन को पूरा करना कर्तव्य का रूप माना जाता था। वाल्मीकि रामायण में कौशल्या, कैकेयी, सीता, तारा आदि नारियों द्वारा वेदमन्त्रों का उच्चारण, अग्निहोत्र, सन्ध्योपासन का वर्णन आता है। राम कथा में भी नारियों की विभिन्न स्थितियों एवं भूमिकाओं को दर्शाया गया है।
मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का चरित्र भारतीय संस्कृति के समष्टि रूप का पर्याय बन चुका है। श्रीराम का चरित्र इतना लोकप्रिय रहा है कि वह भारत के विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में ही नहीं बल्कि विश्ववांग्मय का अभिन्न अंग भी बना और राम कथा को लेकर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ। वे महापुरूष, महात्मा, धीरोदात्त नायक से अवतारी बन गये। श्रीराम शनैः-शनैः साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों के नायक बन गये। निर्गुण एवं सगुण दोनों पंथों के प्रवर्तको ने उनकी महिमा के गीत गाये। कबीर ने श्रीराम को निर्गुण ब्रह्म के रूप में स्वीकार करते हुए उनके नाम को शक्तों के सर्वस्व माना और कहा - दशरत सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना।। तुलसीदास ने रामचरितमानसमें उनके नाम के साथ उनके रूप लीला और धाम की भी आरती उतारी। उन्हें कल्पना और मुक्ति का धाम बताया यथा- नाम राम को कल्पतरू, कहि कल्यान निवासु।
रामकथा भारत की आदि कथा है, जिसे भारतीय संस्कृति का रूपक कह दिया जाये तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। रामकथा के सभी पात्र भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को महिमा प्रदान करते दिखाई देते हैं। विशेष रूप से नारी पात्र अपनी विशिष्टता लिए हुए हैं। उनमें भारतीय मूल्यों के प्रति असीम आस्था है, त्याग की प्रतिमूर्तियॉ हैं, आदर्श पतिव्रता है, विवेकवान समर्पणशीलता है, कर्तव्य-परायण व युग-धर्म की रक्षिका भी है। समय आने पर श्रेष्ठता भी सिद्ध करती है। सम्पूर्ण कथानक को आदर्श मंडित करने में नारी पात्रों की विशेष भूमिका रही है। रामकथा में वर्णित पात्र हैं सीता, कौशल्या, कैकेयी, उर्मिला, मन्दोदरी, माण्डवी, श्रुतिकीर्ति, सुमित्रा, मंथरा, शूर्पणखा, शबरी, तारा आदि। ये नारी पात्र इतने भव्य रूप से चित्रित हुए है कि पुरूष भी उन्हीं के पथ का अनुसरण करते हैं सीता के आदर्श से प्रभावित लक्ष्मण कहते हैं[5] -
नारी के जिस भव्य भाव का, स्वाभिमान भाषी हूँ मैं।
उसे नरो में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं।। (पंचवटी)
                सीता रामकाव्य परम्परा के अन्तर्गत भारतीय नारी-भावना का चरमोत्कृष्ट निदर्शन है, नारी पात्रों में सीता ही सर्वाधिक विनयशील, लज्जाशीला, संयमशीला, साहिष्णु और पतिव्रत की दीप्ति से दैदीप्यमान नारी है। समूचा रामकाव्य उनके तप, त्याग एवं बलिदान के मंगल कुंकुम से जगमगा उठा हैं। लंका में सीता को पहचान कर उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए हनुमान जी ने कहा[6] -
‘‘दुष्करं कुरूते रामो हीनो यदनया प्रभुः।
धारयत्यात्मनो देहं न दुःखेनावसीदति।।
यदि रामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत्।
अस्याः कृते जगच्चापि युक्तमित्येव मे मतिः।।(वा0रा0द्वितीय खण्ड)
अर्थात ऐसी सीता के बिना जीवित रहकर राम ने सचमुच ही बड़ा दुष्कर कार्य किया है। इनके लिए यदि राम समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी को पलट दे तो भी मेरी समझ में उचित ही होगा, त्रैलोक्य का राज्य सीता के एक कला के बराबर भी नहीं है। पत्नी व पति भारतीय संस्कृति में एक दूसरे के पूरक है। आदर्श पत्नी का चरित्र हमें जगदम्बा जानकी के चरित्र में तब दृष्टिगोचर होता है, जब श्रीराम द्वारा वन में साथ न चलने की प्रेरणा करने पर अपना अंतिम निर्णय इन शब्दों में कह देती है-
प्राणनाथ तुम्ह बिन जगमाहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं।
जिय बिन देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरूष बिनुनारी।
विषाद् ग्रस्त होकर भी नारी को जीवन-साथी का ध्यान रखना भारतीय सांस्कृतिक आदर्श है। सीता को अशोक वाटिका में रखकर रावण ने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से पथ विचलित करने का प्रयास किया, परन्तु सीता ने अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया, यथा -
तृन धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरि अवधपति परम सनेही।
सुनु दस मुख खद्योतप्रकासा, कबहुँ कि नलिनी करइ विकासा।।
लोकपवाद के कारण सीता निर्वासित होती है, परन्तु वह अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है, बल्कि इसे लोकोत्तर त्याग कहकर शिरोधार्य करती है व अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती है -
यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाउँगी।
जीवन धर पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी।
है लोकोत्तर त्याग अपना लोकारा धान है न्यारा।
कैसे संभव है कि वह न हो शिरोधार्य मेरे द्वारा।।
इसी प्रकार समस्त ग्रंथों में सीता के चरित्र का उज्ज्वलतम पक्ष प्रस्तुत हुआ है वह रामकथा के केन्द्र में रहकर केन्द्रीय पात्र बनी है। कौशल्या सरल हृदय माता है। अपने पुत्र का वन-गमन उनके लिए हृदय विदारक रहा है। यद्यपि वह अपने पुत्र के कर्तव्य-मार्ग में बाधक नहीं बनी। राम के वनवास जाने की खबर सुनकर वह कहती हैं[7]-
इदं तु दुःखं यदनर्थकानि में व्रतानि दानानि च संयमाश्चहि।
तपश्च तप्तं यदपत्यकाम्यया सुनिष्फलं बीजमिवोप्तमूषरे।।
कौशल्या कोमल मातृ हृदया थी। भरत के कारण राम को 14 वर्ष का वनवास मिला, फिर भी उनका स्नेह भाव रामवत् ही है। वह भरत में ही राम का स्वरूप पा लेती है और माँ का आदर्श चरित्र उपस्थित करती है।
राजा दशरथ की तीन रानियाँ थी। अतः ऐसी स्थिति में सौतिया अहं पनपना स्वाभाविक है पर कौशल्या सौत को सौत न समझकर बहिन सदृश मानती है। कैकेयी के बारे में वह सुमित्रा से कहती हैं-
शिथिल सनेहूँ कोसिला सुमित्रा जू सौ,
मैं न लखि सौतिसखी! भगिनी ज्यों सेई हैं।
                इस प्रकार कौशल्या मातृत्व की जीवन्त प्रतिमा है। दया, माया, ममता की मन्दाकिनी है। तप, त्याग एवं बलिदान की अकथ कथा है। वह राम तथा भरत में भेद नहीं समझती है। पति व राम से स्नेह रखती है, पर राम के वन-गमन पर मौन रहकर अपने कर्तव्य का निर्वहन भी करती है। पति के मृत्यु के उपरान्त वह सती होने का प्रस्ताव भी रखती है। उनमें शील है, उदात्तता है, मातृत्व की व्यंजना है तो नारी सुलभ संवेदना भी है।
                कैकेयी, वाल्मीकि की कैकेयी व्याध का क्रुर वाण है, ‘मानसकी कैकेयी सरस्वती का शापमय वाहन है, लेकिन साकेत की कैकेयी ममतामयी माता है, जिनमें मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा राग है। स्पष्टतः रामकथा परम्परा में कैकेयी का चरित्र विविधता लिये हुए है। बाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि कैकेयी का दशरथ के साथ विवाह इसी शर्त पर हुआ था कि राज्य कैकेयी के पुत्र को दिया जायेगा। यह बात स्वयं राम द्वारा भरत से कही गई है। वस्तुतः कैकेयी ने जो अपराध किया था वह मातृत्व के वशीभूत होकर किया था, परन्तु पश्चाताप की अग्नि में तपकर और आत्मग्लानि के अश्रुप्रवाह से प्रक्षालित होकर कैकेयी का हृदय निष्कलुष और पवित्र हो गया था। साकेतमें तो उनके कलंकित चरित्र को भी उज्ज्वल और भव्य बनाकर प्रस्तुत किया गया है।
                सुमित्रा, कौशल्या की अपेक्षा प्रखर, प्रभावी एवं संघर्षमयी रमणी है। कैकेयी के वचनों की पालना एवं श्रीराम प्रभु के साथ जब लक्ष्मण अपनी माता से वन जाने की आज्ञा चाहते है तो वह कहती है जहॉ श्रीराम जी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहॉ सूर्य का प्रकाश हो वही दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन जाते है तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ काम नहीं है।[8]
अवध तहॉ जहॉ रामनिवासू। तहॅइ दिवसु जहॉ भानु प्रकासू।
जौ पै सीयरामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाही।।
सुमित्रा ने सदैव अपने पुत्र को विवेकपूर्ण कार्य करने को प्रेरित किया। राग, द्वेष, ईर्ष्या, मद से दूर रहने का आचरण सिखाया और मन, वचन, कर्म से अपने भाई की सेवा में लीन रहने का उपदेश दिया।[9]
                                रागु रोषु इरिषा मदु मोहु।
                                जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू।।
                सकल प्रकार विकार विहाई।
                मन क्रम वचन करेहु सेवकाई।।
इस प्रकार सुमित्रा इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि नवीन चेतना से सुसम्पन्न नारी है। वह एक आदर्श मॉ के रूप में राम-लक्ष्मण को अनुकरणीय के लिए प्रेरित करती है।
                मन्दोदरी एक ऐसी रानी है जिसने यथा समय नीति के अनुसार रावण को समझाने की चेष्टा की वह राम की शूरवीरता से परिचित थी अतः उसने कहा-[10]
                अति बल मधु कैटभ जे हिंमारे। महाबीर दितिसुत संघारे।।
                जेहि बलिबॉधि सहसभुजमारा। सोइ अवतरेउ हस महिभारा।।
                उसने रावण को अनेक प्रकार से समझाया, पर रावण अपनी हठ पर अड़ा रहा। ऐसी परिस्थिति में उसने मान लिया था कि उसका पति काल के वश में है अतः उसे अभिमान हो गया है, यथा -
                                नाना विधि तेहि कहेसि बुझाई। सभा बहोरि बैठ सो जाई।।
                                मंदोदरी ह्रदय अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना।।
वैसे मन्दोदरी राजनीति की विशारद और राज-काज की सहायिका भी थी। उसने नगरवासियों के विचारों को जानने के लिए दूतियों तक को निुयक्त कर रखा था। समय की प्रतिकूलता को जानकर ही उसने रावण को समझाने का प्रयास किया था, पर रावण की हठ के कारण वह असफल रही।
माण्डवी भरत की पत्नी है। रामकथा में उसका चरित्र यद्यपि संक्षेप में ही है, पर वह पतिप्रारायणा एवं साध्वी नारी के रूप में चित्रित की गई है। उसके चरित्र के अनुराग-विराग एवं आशा-निराशा का विचित्र द्वन्द्व है। वह संयोगिनी होकर भी वियोगिनी सा जीवन व्यतीत करती है। वह भरत से एकनिष्ठ भाव से प्रेम करती है।
उर्मिला में क्षत्राणी का व्यक्तित्व भी दृष्टिगोचर होता है। लक्ष्मण को शक्ति लगने का समाचार पाकर वह शत्रुघ्न के समीप उपस्थित हो जाती है। वह कार्तिकेय के निकट भवानी लग रही थी। उसके आनन पर सौ अरूणों का तेज फूट रहा था। उसके माथे का सिन्दूर सजग अंगार सदृश था। वह कहती है-
                विध्य-हिमाचल भाल भला झुक आ न धीरो,
                चन्द्रसूर्य कुल-कीर्ति कला रूक जाय न वीरो।   (साकेत)
उर्मिला और लक्ष्मण का पारस्परिक प्रेम एक दूसरे को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है। इस युगल का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है। उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गन्ध नहीं है। तभी तो संयोग की अपूर्व बेला में उर्मिला लक्ष्मण से पूछती है कि -
                प्रेम के शुद्ध रूप कहो-सम्मिलन है प्रधान या गौण?
                कौन ऊँचा है? भावोद्रेक? या कि नत आत्मनिवेदन मौन? (साकेत)
डॉ0 श्याम सुन्दर दास ने कहा, ‘‘काव्य की यह चिरउपेक्षिता, ‘साकेतही नहीं हिन्दी महाकाव्यों की चरित्र भूमि में प्रथम बार जिस वेष में प्रकट होती है, वह वेष अश्रु विगलित होकर ओजमय, आदर्श प्रधान होकर भी स्वाभाविकता के निकट एवं दैवी गुणों से मंडित होकर भी नारी सुलभ है।
रामकथा में अन्य नारी पात्रो मे मंथरा, शबरी शूर्पणखा का नाम आता है। मंथरा जहाँ नीच दासी है, वहीं स्वामिभक्त एवं कर्तव्य परायण भी है। वह कैकेयी के मानस में मातृप्रेम को उभारकर रघुकुल में संशय का विष उत्पन्न कर देती है। शूर्पणखा में नारी सुलभ भाव जहॉ पंचवटी में दिखाई देते है, वही उसकी काम-भावना भी प्रदर्शित होती है।
शबरी की भक्ति का दिग्दर्शन मानस में उल्लेखनीय है, जहॉ वह श्रीराम पर अपनी भावना को भक्तिमय बना देती है और उनका आतिथ्य सत्कार करती है वहाँ प्रभु श्रीराम ने भी प्रेम सहित उसका आतिथ्य स्वीकारा। [11]
कंद, मूल, फल सुरस अति दिए राम कहुँ आन
प्रेम सहित प्रभु खाए, बारम्बार बखानी।
अत्रि मुनि की धर्म संगिनी अनुसूयाका चरित्र वर्णन भी मानस में आया है। जब वह सीता को पतिव्रत धर्म की शिक्षा देती हुई कहती है-
उत्तम के अस वस मनमाही।
सपनेहुँ आन पुरूष जग माही।।
मध्यम वरपति देखईं कैसे।
भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।
इस प्रकार रामकथा परम्परा के लगभग सभी ग्रंथो में उपर्युक्त नारी-पात्रों का उल्लेख हुआ है। भिन्न-भिन्न भाव भूमि के अनुसार उनके चरित्र की व्यंजना भी हुई है परन्तु समग्र रूप से आदर्श की स्थापना ही अभिधेय रहा है। समय आने पर नारियाँ अपनी भूमिका सही ढंग से निर्वहन करे तो राष्ट्र अनाचारो से मुक्त हो सकता हैं। राम द्वारा रावण के संहार का श्रेय भी सीता को जाता हैं राम के कथन से सीता ने राज्यकार्य सिद्धि के हेतु स्वयं अग्नि तक में निवास किया था। संयम, शालीनता, समर्पण, सहिष्णुता की सुरक्षा पक्तियों में रहकर ही नारी गौरवशाली इतिहास का सृजन कर सकती है। आचार्य तुलसी कहते है, मै नारी को ममता, समता और क्षमता का त्रिवेणी कहता हूँ। समता से परिवार में संतुलन रहता है और क्षमता से समाज व राष्ट्र को संरक्षण मिलता है। नारी में सृजन की अद्भूत क्षमता होती है। रामकथा में नारी पक्षों की ओर दृष्टिपात करे तो शत्रु की पत्नी (सीता) के साथ मन्दोदरी का व्यवहार कितना स्नेहवत् था? इस प्रेरणा को ग्रहण कर नारी भी नारी का सम्मान करना सीखें तो भविष्य में पुरूषों का पथ-प्रदर्शन करेंगी। इस हेतु नारियों को अपनी अस्मिता व कर्तव्य-शक्ति का अहसास करना होगा। इस प्रकार नारी-चेतना को जागृत करने में रामकथा की महती भूमिका है। उसके पात्र वर्तमान नारी दर्शन को नयी दिशा देते प्रतीत होते हैं।

निष्कर्ष रामकथा भारत के सांस्कृतिक आदर्शों की कहानी है। उसमें वर्णित नारी पात्र आदर्श की स्थापना करने वाले, समयानुकूल समायोजन करने वाले, प्राचीन मूल्यों का संवहन करने वाले, वीरत्व, त्याग, सहिष्णुता, कर्मठता, पतिव्रत को धारण करने वाले है, साथ ही वर्तमान युग की विसंगतियों का समाधान करते हुए नारी की महिमा को पुर्स्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं। समग्रतः रामकथा में नारीदर्शन वर्तमान में सर्वाधिक प्रासंगिक है, क्योंकि आधुनिकता के चकाचौंध में नारी की भव्य गरिमा को वे ही सुरक्षित रखवा सकते हैं। इस भूमि पर नारी पूज्य रही है, रहेगी, परन्तु उसे स्वयं भी अपनी ईश्वर-प्रदत्त वैभव को सुरक्षित रखना होगा। रामकथा में नारीदर्शन यही संदेश देते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. शर्मा व व्यास, भारत का इतिहास प्रारम्भ से 1200ई0 तक, पृष्ठ-114 2. सत्यकेतु विद्यालंकार, प्राचीन भारत का धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन, पृष्ठ - 207 3. मनु 9.27.28 उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम। प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निवंधनम्।। 4. डाॅ0 लता सिंहल, भारतीय संस्कृति में नारी, पृष्ठ - 223 5. मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी, पृ0 16 6. श्रीमद्वाल्मीकिय रामायण, द्वितीय खण्ड, पृ0 81-82. 7. श्रीमद्वाल्मीकिय रामायण, द्वितीय खण्ड, पृ0 291 8. तुलसीदास -रामचरित मानस - पृष्ठ- 365 9. तुलसीदास- पूर्वाेद्धृत - पृष्ठ- 366 10. तुलसीदास - पूर्वाेद्धृत - पृष्ठ -712 11. तुलसीदास - पूर्वाेद्धृत - पृष्ठ - 714